दिलीप मंडल
यूपी चुनाव के दौरान मैंने कुछ भी लिखने से परहेज़ किया. लेकिन अब बात लिखी जा सकती है.अभी संपन्न हुए यूपी विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय मुद्दा ही नहीं था.लोगों के पास सामाजिक न्याय के आधार पर वोट डालने का विकल्प नहीं था.किसी भी राजनीतिक पार्टी ने सामाजिक न्याय को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया.
मुसलमानों ने किसे वोट दिया
सपा और बसपा मुख्य रूप से दो आधार पर चुनाव लड़ रही थीं.दोनों पार्टियां दावा कर रही थीं कि वे बीजेपी को रोकने में ज्यादा सक्षम हैं, इसलिए मुसलमान उन्हें वोट दें.इन पार्टियों का गणित ये था कि बीजेपी के मुकाबले खुद को सबसे मजबूत साबित करते ही लगभग 20 फीसदी आबादी वाला मुसलमान वोट उन्हें मिल जाएगा.सपा को इसमें कामयाबी भी मिली लेकिन मुसलमान वोट के साथ अगर बड़ी संख्या में हिंदू वोट न हों तो यूपी में चुनाव नहीं जीता जा सकता.
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विधानसभा चुनाव के दौरान एक जनसभा को संबोधित करते सपा प्रमुख अखिलेश यादव.
इन पार्टियों का दूसरा दावा अपने-अपने कार्यकाल में हासिल की गई ‘उपलब्धियां’थीं.सपा दावा कर रही थी कि अखिलेश विकास पुरुष हैं और 2012-2017 के बीच यूपी में खूब विकास हुआ है.वहीं बसपा का दावा था कि कानून और व्यवस्था 2007-2012 में सबसे अच्छी थी.ये सब करके सपा और बसपा पहले भी हार चुकी थीं लेकिन उन्होंने लोगों को उन्हीं दिनों की याद दिलाई.ये रणनीति फेल हो गई.
बीजेपी का सांप्रदायिकता पर जोर
बीजेपी के चुनावी प्रचार में सांप्रदायिक तत्व कभी खुले तो कभी प्रछन्न रूप से लगातार चलता रहा.खुद योगी आदित्यनाथ भी इसमें पीछे नहीं थे.इसके मुकाबले सपा या बसपा ने कोई वैचारिक चुनौती पेश नहीं की.सामाजिक न्याय से बीजेपी की सांप्रदायिकता को वैचारिक चुनौती दी जा सकती थी लेकिन सपा और बसपा दरअसल वहां से पीछे लौट चुकी हैं.
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उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभार जताते योगी आदित्यनाथ.
बसपा ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन और प्रबुद्ध सम्मेलन कर रही थी, तो सपा परशुराम जयंती को सरकारी छुट्टी बनाकर ब्राह्मण वोट की उम्मीद कर रही थी.अखिलेश यादव बाबाओं का चरण स्पर्श करने की फोटो सोशल मीडिया पर डाल रहे थे. ये तुष्टिकरण एक दौर में असरदार हुआ करता था क्योंकि तब सपा और बसपा आपस में भिड़ रही थीं और बीजेपी किनारे पड़ी थी.तब तक सवर्ण इस ओर या उस ओर आ-जा रहे थे.2014 में उनका ज्यादातर वोट बीजेपी में चला गया और अब यही नई स्थिति है.
ब्राह्मणों ने किसे वोट किया
2022 के विधानसभा चुनाव में समुदायों के वोटिंग पैटर्न पर सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे का आकलन है कि ब्राह्मणों का लगभग 90 फीसद वोट बीजेपी को गया. ठाकुर और सवर्ण-वैश्य भी उनसे कुछ ही पीछे हैं.सपा और बसपा ने सबका साथ,सबका विकास की रणनीति की नकल के चक्कर में अपना वैचारिक तेज खो दिया है. खासकर,ईडब्ल्यूएस कोटा के मामले में बीजेपी के विधेयक का संसद में समर्थन करने से सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की राजनीति का उनका दावा कमजोर हो गया है.
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बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि देतीं पार्टी प्रमुख मायावती.
आरक्षण का आधार मूल रूप से तीन थे-अछूत होने की पृष्ठभूमि, आदिवासी होना और सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन.इसमें आर्थिक आधार जोड़ने का मतलब पिछड़ेपन की ऐतिहासिकता के विचार को नकारना था. यह न लोहियावाद है और न ही बहुजनवाद.मेरा विचार है कि यहां पर सपा और बसपा ने ऐतिहासिक भूल की है.
(देश के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने यह लेख आज अपने फेसबुक पेज पर लिखा था.इसे वहीं से लेकर प्रकाशित किया जा रहा है)