दलित ख़बर ब्यूरो
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता पर अपना फ़ैसला सुनाया. देश की शीर्ष अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया है.
अदालत ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड को अज्ञात रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है.अदालत ने 2019 के अंतरिम आदेश के बाद से खरीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड का विवरण सार्वजनिक करने का आदेश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले पीठ ने यह फैसला सुनाया. इसमें जस्टिस चंद्रचूड के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्र शामिल थे.जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अदालत ने सर्वसम्मति से फैसला दिया है.उन्होंने कहा कि इस पर एक राय उनकी थी और एक जस्टिस संजीव खन्ना की,लेकिन निष्कर्ष को लेकर सभी की सहमति थी.
अदालत ने कहा कि राजनीतिक पार्टियों को आर्थिक मदद से उसके बदले में कुछ और प्रबंध करने की व्यवस्था को बढ़ावा मिल सकता है.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि काले धन पर काबू पाने का एकमात्र तरीका इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं हो सकता है.इसके और भी कई विकल्प हैं.उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) को राजनीतिक पार्टियों को मिले इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देने का निर्देश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एसबीआई चुनाव आयोग को जानकारी मुहैया कराएगा और चुनाव आयोग इस जानकारी को 31 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पांच प्रमुख पहलू
अनुच्छेद 19(1)(A) का उल्लंघन
शीर्ष अदालत ने एक सर्वसम्मत फैसले पर पहुंचा. इसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजीव खन्ना दोनों इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की असंवैधानिक प्रकृति पर सहमत हुए.
याचिकाओं में उठाए गए मुख्य मुद्दे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार के संभावित उल्लंघन, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांतों से समझौता करने वाली असीमित कॉर्पोरेट फंडिंग पर चिंता पर केंद्रित थे.
कालेधन पर लगाम लगाने के तरीके
अजालत ने माना कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना काले धन पर लगाम लगाने का एकमात्र तरीका नहीं है. अदालत ने राजनीतिक दलों को वित्तीय सहायता से उत्पन्न होने वाले बदले की व्यवस्था की संभावना को स्वीकार किया. अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था सीधे तौर पर नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना है.
अलग-अलग उद्देश्य
अदालत ने कहा कि सूचना के अधिकार के किसी भी उल्लंघन को सिर्फ काले धन पर लगाम लगाने के उद्देश्य से उचित नहीं ठहराया जाना चाहिए. अदालत ने कहा कि सभी योगदान का उद्देश्य पब्लिक पॉलिसी को बदलना नहीं है, क्योंकि छात्र और दैनिक मजदूर भी अपना योगदान देते हैं. फैसले में कहा गया कि केवल कुछ योगदान के वैकल्पिक उद्देश्यों की वजह से राजनीतिक योगदानों को गोपनीयता से वंचित करना अस्वीकार्य है.
कॉर्पोरेट का प्रभाव
अदालत ने निजी योगदान की तुलना में राजनीतिक प्रक्रिया पर कंपनियों के संभावित गंभीर प्रभाव पर जोर दिया.अदालत ने कंपनी अधिनियम में संशोधन की आलोचना करते हुए कहा कि राजनीतिक फंडिंग में कॉर्पोरेट डोनेशन पूरी तरह से व्यावसायिक लेनदेन है.
पारदर्शिता
अदालत ने बैंकों द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने पर तत्काल रोक लगाने के निर्देश दिए हैं. अदालत ने कहा है, “स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए अब तक किए गए योगदान की की पूरी जानकारी 6 मार्च तक चुनाव आयोग को दे.अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर इस जानकारी को साझा करे.
इलेक्टोरल बॉन्ड को किसने दी थी चुनौती
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 2017 में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई थीं. ये दोनों याचिकाएं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म और कॉमन कॉज नाम के दो गैर सरकारी संगठनों और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने दायर की थीं. इन याचिकाओं ने सुप्रीम कोर्ट से इलेक्टोरल बॉन्ड को रद्द करने की मांग की गई थी.
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है.उनका यह भी कहना था कि कॉर्पोरेट फंडिंग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के खिलाफ है.
एसोसिएशन फोर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2022-23 में कॉर्पोरेट डोनेशन का 90 फीसदी हिस्सा बीजेपी के खाते मे गया था. संगठन के मुताबिक 2022-23 में राष्ट्रीय पार्टियों ने 850.438 करोड़ रुपए चंदे में मिलने की घोषणा की थी.इसमें बीजेपी को अकेले 719.85 करोड़ रुपए मिले थे. कांग्रेस को 79.92 करोड़ रुपए मिले.
इस मामले पर सुनवाई शुरू होने से पहले भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने योजना का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि यह योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में साफ धन के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है.उनका तर्क था कि नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी और सब कुछ जानने का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है.